सोमवार, 30 दिसंबर 2024

विविध 08 : चन्द चुनिन्दा अश’आर क़िस्त 02

 [चन्द मुन्तख़िब मानूस अश’आर]


कोना 02

    1

कि गवाँ दिया मैने होश भी, मुझे चैन आ न सका कभी

तेरी याद यूँ ही जवाँ रही, तुझे दिल भुला न  सका कभी ।    - नामालूम  

2

न देखा था जो बज्म-ए-दुश्मन में देखा

मुहब्बत तमाशे दिखाती है क्या क्या ।                

 -बेख़ुद देहलवी

3

इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या 
आगे आगे देखिए होता  है क्या ।             -मीर तक़ी मीर

4

बग़ैर पूछे जो अपनी सफ़ाई देता है

नहीं भी हो तो मुजरिम दिखाई देता है।            - शौक़-

5

मेहरबां हो के बुला लो मुझे  चाहो जिस वक़्त

मैं गया वक़्त नहीं हूं कि आ भी न सकूँ ।        -दाग़ देहलवी

6

अल्लाह दस्त-ए-नाज़ की नाज़ुक़ सी उँगलियाँ

उस पर भी गुलाब-ए-इत्र की ख़ुशबू का बोझ है ।   

 - डा0 कैलाश गुरुस्वामी

7

हम बावफ़ा थे इसलिए नज़र से गिर गए

शायद उन्हे तलाश किसी बेवफ़ा की थी ।      -नामालूम

8

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए

यहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं  शहर के लिए ।   

     -दुष्यन्त कुमार


-आनन्द.पाठक [ संकलन कर्ता]





सोमवार, 16 दिसंबर 2024

गीत 89 : नव वर्ष 2025 --स्वागतम गीत

 

नव वर्ष 2025 --स्वागतम गीत

122---122---122---122

उमीदों भरा यह नया वर्ष आया 

नए वर्ष का स्वागतम  गीत गाएँ


विगत वर्ष के जो अधूरे सपन हैं

उन्हे हौसलों के नए पंख देंगे ।

किसी भी तरह की कमी रह गई थी

उन्हे पूर्ण करने की कोशिश करेंगे।

नया है सवेरा, प्रथम नव किरण से

नए स्वप्न फिर से चलो हम सजाएँ ।


नई मंज़िलों का नया लक्ष्य साधें

करें आज प्रण हम नई भावना से।

नियति मान कर बैठ जाना नहीं है

बदलनी नियति है सतत साधना से।

मिटाना अँधेरा, निराशा अगर है

हृदय में सदा ज्योति पावन जलाएँ ।


अनागत क्षणों में विजय श्री निहित है

उन्हे सत्प्रयासों से है प्राप्त करना ।

चलो आज संकल्प लेते हैं मिल कर

हमें है सदा सत्य की राह चलना ।

सभी जन के अंदर अतुल शक्तियाँ हैं

उन्हे हम नए वर्ष में फिर जगाएँ ।


नए वर्ष में ना करे ’युद्ध’ कोई 

सभी हों सुखी, चैन की ज़िंदगी हो।

न नफ़रत, न इर्ष्या, न कल्मष हॄदय में

दया की, क्षमा प्रेम की रोशनी हो ।

नए वर्ष के इस सुखद आगमन पर

अहिंसा का संदेश जग को सुनाएँ

नए वर्ष का स्वागतम गीत गाएँ ।


-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

अनुभूति 162/49

अनुभूति 162/49

645
नैतिकता की बातें सुन सुन
शेर हुआ क्या शाकाहारी ?
कल तक 'रावण' के चोले में
आज बने क्या अवध बिहारी ?

646
पग पग पर हैं गति अवरोध
ठोकर खा खा कर है चलना
जीवन इतना सरल नहीं है
गिरना उठना, स्वयं सँभलना । 

647
सोन चिरैया गाती जाए
अपनी धुन अपनी मस्ती में
हँस कर जीना,खुल कर हँसना
जितना दिन रहना बस्ती में ।

648
सबका अपना जीवन दर्शन
सबकी अपनी राम कहानी
अन्त सभी का एक समाना
बाक़ी चीज़े आनी-जानी ।

-आनन्द.पाठक-





मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

अनुभूति 161/48

 अनुभूति 161/48

641

सुन कर मेरी प्रेम-कहानी

साथी ! तुमको क्या करना है?

कर्ज किसी का मेरे सर पर

आजीवन जिसको भरना है।


642

कसमे वादे प्यार वफ़ा सब

जब तुमने ही भुला दिया है

मैने भी अपनी चाहत को

थपकी दे दे सुला दिया है ।


643

जो भी करना खुल कर करना

द्वंद पाल कर क्या करना है 

दुनिया की तो नज़रें टेढ़ी

दुनिया से अब क्या करना है ।


644

सत्य नहीं जब सुनना तुमको

और तुम्हे क्या समझाऊँ मैं

झूठ तुम्हे सब लगता है तो

चोट लगी क्या दिखलाऊँ मैं।

-आनन्द.पाठक-


रविवार, 20 अक्टूबर 2024

अनुभूति 160/47

 अनुभूति 160/47

637

तर्क नहीं जब, नहीं दलीलें

शोर शराबा ही शामिल हो

क्यों उलझे हो उसी बहस में

अन्तहीन जो लाहासिल हो । 


638

तुम हो ख़ुद में  एक पहेली

आजीवन हल कर ना पाया

पर्दे के अन्दर पर्दा है --

राज़ यही कुछ समझ न आया।


639

सूरज कब श्रीहीन हुआ है

जन-मानस को जगा दिया है

बादल को यह भरम हुआ है

सूरज उसने छुपा दिया है ।


640

वही अनर्गल बातें फिर से

वही तमाशा फिर दुहराना  

जिन बातों का अर्थ न कोई

उन बातों में फिर क्यों आना ।

 

-आनद.पाठक-



लाहासिल = जिसका कोई हासिल न हो, अनिर्णित

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

अनुभूति 159/46

 

अनुभूति159/46 


633

नहीं समझना है जब तुमको

कौन तुम्हें फिर क्या समझाए

इतनी जिद भी ठीक नहीं है

घड़ी मिलन की बीती जाए ।


634

सबके अपने जीवन क्रम है

सबकी अपनी मजबूरी है

मन तो वैसे साथ साथ है

तन से तन की ही दूरी है ।


635

समझौते करने पड़ते हैं

जीवन की गति से, प्रवाह में

कभी ठहरना, गिर गिर जाना

मंज़िल पाने की निबाह में


636

एक तुम्ही तो नहीं अकेली

ग़म का बोझ लिए चलती हो

हर कोई ग़मजदा यहाँ है

ऊपर से दुनिया छलती है ।


-आनन्द.पाठक-






सोमवार, 14 अक्टूबर 2024

अनुभूति 158/45

  अनुभूति 158/45


629

भला बुरा या जैसा भी हूँ

जो बाहर से, सो अन्दर से

शायद और निखर जाऊँ मै

पारस परस तुम्हारे कर से ।


630

विरह वेदना अगर न होती

तड़प नहीं जो होती इसमे

पता कहाँ फिर चलता कैसे

प्रेम भावना कितना किसमे।


631

हम दोनों की राह अलग अब

लेकिन मंज़िल एक हमारी

प्रेम अगन ना बुझने पाए

चाहे जो हो विपदा भारी ।


632

दोषारोपण क्या करना अब

किसने जोड़ा, किसने छोड़ा

टूट गई जब प्रेम की डोरी

व्यर्थ बहस क्या किसने तोड़ा


-आनन्द पाठक-

अनुभूति157/44

 अनुभूति 157/44



625
मुझे मतलबी समझा तुमने
सोच तुम्हारी, मैं क्या बोलूँ
खोल चुका दिल पूरा अपना
और बताओ कितना खोलूँ


626
कमी सभी में कुछ ना कुछ तो
कौन यहाँ सम्पूर्ण स्वयं में ।
सत्य मान कर जीते रहना
आजीवन बस एक भरम में ।


627
जो होना है सो होगा ही
व्यर्थ बहस है व्यर्थ सोचना
पाप-पुण्य की बात अलग है
कर्मों का फ़ल यहीं भोगना  ।


628
ग़लत सदा ही समझा तुमने 
देव नहीं में , नहीं फ़रिश्ता
जैसी तुम हो, वैसा मैं भी
दिल से दिल का केवल रिश्ता


-आनन्द.पाठक--
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अनुभूति 156/43

अनुभूतियाँ 156/43

 621
बंद करो यह प्रवचन अपना
इधर उधर की बात सुना कर
ख़ुद को भगवन बता रहे हो
भोली जनता को भरमा कर

622
कर्म तुम्हारा ख़ुद बोलेगा
चाहे जितनी हवा बाँध लो
वक़्त करेगा सही फ़ैसला
जिसको जितना जहाँ साध लो।

623
जीवन के अनुभूति क्रम में
परत, परत दर परत व्यथाएँ
आँखों में आँसू बन छलकी
बूँद बूँद में कई कथाएँ ।

624
व्यर्थ तुम्हारी अपनी जिद थी
शर्त नही होती उलफ़त में
कितनी भोली नादाँ हो तुम
इश्क़ नही होता ग़फ़लत में ।

-आनन्द.पाठक-

रविवार, 13 अक्टूबर 2024

विविध 07: : चन्द चुनिन्दा अश’आर क़िस्त 01

[ इस कोने में अपना कोई शे’र/कविता/गीत/मुक्तक  नहीं  अपितु अन्य तमाम चुनिंदा शायरों/कवियों  के चुनिंदा अश’आर/ क़ता’अ/-मुक्तक./ गीतांश-आदि का मज़्मुआ [संकलन] है जो मुझे बेहद पसंद है]-

-हर कोने में 8  अश’आर

कोना 01

1

ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे ।                                - बशीर बद्र

2
अदब के नाम पे महफ़िल में चरबी बेचने वालों
अभी वो लोग ज़िंदा हैं जो घी पहचान लेते हैं ।                  -  क़यूम नाशाद

3
ज़फ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यों सँभल के बैठ गए
तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की ।                            - मज़रूह सुल्तानपुरी

4
सिर्फ़ तुकबंदिया काम देगी नहीं
शायरी कीजिए शायरी की तरह ।                              - शरद तैलंग

5
जिसके आँगन में अमीरी का शजर लगता है
उसका हर ऎब ज़माने को हुनर लगता  है ।    -             -अंजुम रहबर

6
ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमी सो गए दास्ताँ कहते कहते                                   - साक़िब लखनवी

7
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी कसम से आप का ईमान तो गया ।                        -दाग़  देहलवी

8
मैं मयकदे की राह से हो कर गुज़र गया
वरना सफ़र हयात का काफी तवील था                          -अब्दुल हमीद ’अदम’


-आनन्द.पाठक--[संकलन कर्ता]




अनुभूति 155/42

अनुभूतिया 155/42


617

सात जनम की बातें करते

सुनते रहते वचन धरम में  

एक जनम ही निभ जाए तो

बहुत बड़ी है बात स्वयं में ।


618

बंद अगर आँखें कर लोगी

फिर कैसे दुनिया देखोगी

कौन तुम्हारा, कौन पराया

लोगों को कैसे समझोगी ।


619

सरल नही है सच पर टिकना

पग पग पर है फिसलन काई 

मिल कर टाँग खीचने वाले 

झूठों के जो है अनुयायी ।


620

यह दुनिया है, बिना सुने ही

ठहरा देगी तुमको मजरिम

लाख सफाई देते रहना

वही फैसला उसका अंतिम


-आनन्द पाठक-


शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

अनुभूतियाँ 154/41

अनुभूति 154/41


613

उदगम से लेकर आख़िर तक 

नदिया करती कलकल छलछल ।

अन्तर्मन में प्यास मिलन की

लेकर बहती रहती अविरल ।



614

सोन चिरैया गाती रह्ती 

किसे सुनाती रहती अकसर

ना जाने कब उड़ जाएगी

तन का पिंजरा किस दिन तज कर



615

सभी बँधे अपने कर्मों से

ॠषिवर, मुनिवर, साधू जोगी

एक बिन्दु पर मिलना सबको

कामी, क्रोधी, लोभी, भोगी ।



616

अरसा बीते, पूछा तुमने-

"कहाँ किधर हो? कैसे हो जी?"

जैसा छोड़ गई थी उस दिन

वैसा ही हूँ , अच्छा हूँ जी ।

-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

ग़ज़ल 427[ 01G] ; नशा दौलत का है उसको--

 ग़ज़ल  427 [01G]

1222---1222---1222---1222

मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम

--- ---- --- 

नशा दौलत का है उसको, अभी ना होश आएगा

खुलेगी आँख तब उसकी, वो जब सब कुछ गँवाएगा।


बहुत से लोग ऐसे हैं,  ख़ुदा ख़ुद को समझते हैं

सही जब वक़्त आएगा, समय सब को सिखाएगा।


बख़ूबी जानता है वह कि उसकी हैसियत क्या है

बड़ा खुद को बताने में  तुम्हें कमतर बताएगा ।


वो साज़िश ही रचा करता, हवाओं से है याराना

अगर मौक़ा मिला उसको, चिराग़ों को बुझाएगा


किताबों में लिखीं बाते, सुनाता हक़ परस्ती की

अमल में अब तलक तो वह, न लाया है, न लाएगा


हवा में भाँजता रहता है तलवारें  दिखाने को

जहां कुर्सी दिखी उसको, चरण में लोट जाएगा ।


शराफत की भली बातें, कहाँ सुनता कोई "आनन"

सभी अपनी अना  में है, किसे तू क्या सुनाएगा ।


-आनन्द.पाठक-



इस ग़ज़ल को आप श्री विनोद कुमार उपाध्याय की आवाज़ में यहाँ सुनें

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सोमवार, 30 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 153/40

अनुभूति 153/40


609

पहले वाली बात कहाँ अब

मौसम बदला तुम भी बदली

वो भी दिन क्या दिन थे अपने

मैं था ’पगला" तुम थी ’पगली

 

610

जिन बातों से चोट लगी हो

मन में उनको, फिर लाना क्यों

जख्म अगर थक कर सोए हो

फिर उनको व्यर्थ जगाना क्यों

 

611

जब से दूर गए हो प्रियतम

साथ गईं मेरी साँसे भी

देख रही हैं सूनी राहें

और प्रतीक्षारत आँखे भी


612

समझाने का मतलब क्या फिर

बात नहीं जब तुमने मानी

क्या कहता मैं जब तुमने ही

राह अलग चलने की ठानी

 

-आनन्द.पाठक

 


अनुभूतियाँ 152/39

अनुभूति 152/39

605
काट दिए जब दिन विरहा के
मत पूछो कैसे काटे हम
सारी ख़ुशियाँ एक तरफ़ थी
जीवन टुकड़ों में बाँटे हम
 
606
 हार गए हों जो जीवन से
टूट गईं जिनकी आशाएँ
एक सहारा देना उनको
मुमकिन है फिर से जी जाएँ

607
लाख मना करता है ज़ाहिद
कब माना करता है यह दिल
मयखाने से बच कर चलना
कितना होता है यह मुशकिल
 
608
नदिया की अपनी मर्यादा
तट के बन्धन में रहती है
अन्तर्मन में पीड़ा रखती
दुनिया से कब कुछ कहती है
 

-आनन्द.पाठक-

रविवार, 29 सितंबर 2024

ग़ज़ल 426[75 फ़] : झूठे ख़्वाब दिखाते क्यों हो

 

ग़ज़ल  426[75 फ़]

21--121--121--122  =16


झूठे ख़्वाब  दिखाते क्यों हो

सच को तुम झुठलाते क्यों हो


कुर्सी क्या है आनी-जानी

तुम दस्तार गिराते क्यों हो


तर्क नहीं जब पास तुम्हारे

इतना फिर चिल्लाते क्यों हो।


गुलशन तो हम सबका है फिर

तुम दीवार उठाते क्यों हो ।


बाँध कफ़न हर बार निकलते

पीठ दिखा कर आते क्यों हो ।


जब जब लाज़िम था टकराना

हाथ खड़े कर जाते क्यों हो ।


पाक अगर है दिल तो ’आनन’

दरपन से घबराते क्यों हो ।


-आनन्द.पाठक - 





शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

ग़ज़ल 425 [74 फ़] : कोई आता है दुनिया में

 ग़ज़ल  425[74 फ़}


1222---1222---1222---1222


कोई आता है दुनिया में , कोई दुनिया से जाता है,

नवाज़िश है करम उसका, हमे क्या क्या दिखाता है


नही जो पाक सीरत हो, भरा हिर्स-ओ-हसद से दिल

इबादत या ज़ियारत हो, ख़ुदा नाक़िस बताता है ।


भरोसा है अगर उस पर, झिझक क्या है, हिचक फिर क्या

उसी का नाम लेता चल, अज़ाबों से बचाता है ।


न जाने क्या समझ उसकी, बहारों को ख़िज़ा कहता

हक़ीक़त जान कर भी वह, हक़ीक़त कह न पाता है ।


अदा करना जो चाहो हक़, तुम्हारी अहलीयत होगी

वगरना बेग़रज़ कोई फ़राइज़ कब निभाता है ।


तबियत आ ही जाती है जो ख़्वाहिश हो अगर उनकी

बना कर राहबर भेजे जिसे अपना बनाता  बनाता है ।


हुए गुमराह क्यों ’आनन’ ये सीम-ओ-ज़र के तुम पीछे

अगर दिल की सुना करते , सही राहें बताता है ।


-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 24 सितंबर 2024

ग़ज़ल 424 S [73-फ़] : गुनाह कर के भी होता वो---

 ग़ज़ल 424[73 फ़]

1212---1122---1212---112/22


गुनाह कर के भी होता वो शर्मसार नहीं

दलील यह है कि दामन तो दाग़दार नहीं


हज़ार रंग वो बदलेगा, झूठ बोलेगा,

मगर कहेगा कि "कुर्सी’ से उसको प्यार नहीं।


बताते ख़ुद को ही मजलूम बारहा सबको

चलेगा दांव तुम्हारा ये बार बार नहीं ।


ख़याल-ओ-ख़्वाब में जीता, मुगालते में है

कि उससे बढ़ के तो कोई ईमानदार नहीं।


दिखा के झूठ के आँसू , ख़बर बनाते हो

तुम्हारी बात में वैसी रही वो धार नहीं ।


यक़ीन कौन करेगा तुम्हारी बातों पर

तुम्हारी साख रही अब तो आबदार नहीं।


भले वो जो भी कहे सच तो है यही ’आनन’

किसी भी शख्स पे उसको है ऎतबार नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को विनोद कुमार उपाध्याय की आवाज़ में 

यहाँ सुने

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ग़ज़ल 423 [72-फ़] : मुख़ालिफ़ जो चलने लगी हैं हवाएँ

 ग़ज़ल  423 [72-फ़]

122---122---122---122


मुख़ालिफ़ जो चलने लगी हैं हवाएँ

चिराग़-ए-मुहब्बत कहाँ हम जलाएँ ।


बला आसमानी से क्या ख़ौफ़ खाना

अगर साथ होंगी तुम्हारी दुआएँ ।


बदल जाएगी मेरी दुनिया यक़ीनन

मेरी ज़िंदगी में अगर आप आएँ ।


मिलेगा ठिकाना कहाँ और हमको

जहाँ जा के सजदे में यह सर झुकाएँ।


सभी अपने ग़म में गिरफ़्तार बैठे

यह जख़्म-ए-जिगर जा के किसको दिखाएँ ?


परिंदे शजर छोड़ कर उड़ गए हैं 

शजर कैसे अपनी जमीं छोड़ जाएँ ।


तुम्ही को ये दुनिया बनानी है ’आनन’

फ़रिश्ते उतर कर जो आएँ न आएँ ।


-आनन्द.पाठक-






शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

कविता 030 : आसुरी शक्तियाँ

 कविता 030 : आसुरी शक्तियाँ



आसुरी शक्तियाँ 
पाशविक प्रवृत्तियाँ
देवासुर संग्राम में
कल भी थी, आज भी है |
रावण मरा नहीं करता है
कंस सदा ज़िंदा रहता है
मन के अंदर   
सत्य असत्य का
 द्वंद सदा चलता रहता है ।
निर्भर करता 
आप किधर किस ओर खड़े हैं
कितना कब तक आप लड़े हैं ।

-आनन्द.पाठक ’आनन’

इस गीत को आप यहाँ सुन सकते हैं--



सोमवार, 16 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 151/38


अनुभूतियाँ 151/ 38


601
आसमान के कितने ग़म है
धरती के भी क्या कुछ कम हैं?
कौन देखता इक दूजे की
आँखे किसकी कितनी नम हैं ।
 
 
602
एक समय ऐसा भी आया
जीवन में अंगारे बरसे
जलधारों की बात कहाँ थी
बादल की छाया को तरसे
 
603
एक बात को हर मौके पर
घुमा-फिरा कर वही कहेगा।
ग़लत दलीलें दे दे कर वह
ग़लत बात को सही कहेगा
 
 
604
जब अपने मन का ही  करना
फिर क्या तुमसे कुछ भी कहना
जिसमें भी हो ख़ुशी तुम्हारी
काम वही तुम करती रहना
 
 
-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 150/37

 

क़िस्त 150/37

 

597

बहुत दिनों के बाद मिली हो

आओबैठॊ पास हमारे -

यह मत पूछो कैसे काटे

विरहा में, दिन के अँधियारे ।

 

598

मन के अन्दर ज्योति प्रेम की

राह दिखाती रही उम्र भर

जिसे छुपाए रख्खा मैने

पीड़ा गाती रही उम्र भर

 

599

साथ तुम्हारा ही संबल था

जिससे मिला सहारा  मुझको

साँस साँस में तुम ना घुलती

मिलता कहाँ किनारा मुझको

 

600

सदियों की तारीख़ भला मै

लम्हों में बतलाऊं कैसे ?

जीवन भर की राम-कहानी

पल दो पल में गाऊँ कैसे ?


-आनन्द.पाठक-

 

अनुभूतियां 149/36

अनुभूतियाँ 149/36


593

एक किसी के जाने भर से

दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती

चाह अगर है जीने की तो

राह नई खुद राह दिखाती

 

594

कहाँ गई वो ख़ुशी तुम्हारी

कहाँ गया अब वो अल्हड़पन

इस बासंती मौसम में भी

दुखी दुखी सी क्यों रहती जानम

 

595

कब तक मौन रहोगी यूँ ही

कुछ तो अन्तर्मन की बोलो

अन्दर अन्दर क्यों घुलती हो

कुछ तो मन की गाँठें खोलो

 

596

 हर बार छला दिल ने मुझको

हर बार उसी की सुनता हूँ

क्या होता हैं सपनों का सच

मालूममगर मैं बुनता हूँ


 


अनुभूतियाँ 149/36

 अनुभूतियाँ 149/36

1:
लाख मना करता है ज़ाहिद
कब माना करता है यह दिल ।
मयखाने से बच कर चलना
कितना होता है यह मुशकिल ।

:2;

रविवार, 15 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 114/01

 [ अब यहाँ से ये तमाम अनुभूतियाँ -कही अनकही-      [ नया संग्रह] में संकलित होंगी]


क़िस्त 114/ क़िस्त 1

453

कब आना था तुमको लेकिन

निश दिन मैने पंथ निहारे

हर आने जाने वाले से

पूछ रहा हूँ  साँझ-सकारे।

454

जिन रिश्तों में तपिश नहीं हो

उन रिश्तों को क्या ढोना है

हाय’ हेलो तक ही रह जाना

रस्म निबाही का होना है

455

कैसे मैं समझाऊँ तुमको

नही समझना ना समझोगी

तुम्ही सही हो, मैं ही ग़लत हूँ

बिना बात मुझ से उलझोगी

456

बात बात पर नुक़्ताचीनी

बात कहाँ से कहाँ ले गई

क्या क्या तुमने अर्थ निकाले

जहाँ न सोचा, वहाँ ले गई


शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

मुक्तक 22

122   122   122   122
1
तुम्हे लग न जाए किसी की नजर
मेरे हमनवा ऐ मेरे हमसफर
जुदाई की रातें न काटे कटी
शब-ए-वस्ल क्यूँ है लगे मुख्तसर

2
212   212  212
दिल में उलफत जगी तो रहे
इक शराफत बनी तो रहे
वह फरिश्ता बने ना बने
आदमी, आदमी तो रहे ।

3
212   212   212   212
खुशनुमा जिंदगी कौन जी कर गया
कौन ग़म मे जिया खुदकुशी कर गया
मैकदे को कहाँ फर्क क्या फिक्र क्या
कौन प्यासा गया कौन पी कर गया ।

4
221   2121   1221   212
कुछ सिरफिरे हैं लोग तुम्हे बरगला रहें
मजहब के नाम पर तुम्हे जन्नत दिखा रहें
दीपक जला के राह दिखाना था कल जिन्हे
मिल कर हवा के साथ वो बस्ती जला रहे

-आनन्द पाठक-

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 148/35 :

अनुभूतियाँ 148/35

589

सदा बसें  हिरदय में मेरे

राम रमैया सीता मैया

अंजनि पुत्र केसरी नंदन

साथ बिराजै लछमन भैया

 

 

590

हो जाए जब सोच तुम्हारी

राग द्वेष मद मोह से मैली

राम कथा में सब पाओगे

जीवन के जीने की शैली

 

:591

एक बार प्रभु ऐसा कर दो

अन्तर्मन में ज्योति जगा दो

काम क्रोध मद मोह  तमिस्रा

मन की माया दूर भगा दो

 

592

इस अज्ञानी, इस अनपढ़ पर

कृपा करो हे अवध बिहारी 

भक्ति भाव मन मे जग जाए

कट जाए सब संकट भारी


-आनन्द.पाठक-