रविवार, 29 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ 115/02

 

क़िस्त 115/क़िस्त 2

 

457

शायद तुम को खुशी इसी में

तुम जीती हो हारा हूँ मैं

अच्छा कोई बात नहीं है

फिर भी एक किनारा हूँ मैं

 

458

और कोई होता समझाता

तुमको समझाना मुश्किल है

एक लकीर खिंची पत्थर पर

और तुम्हारा पत्थर दिल है

 

459

सौ बातों की एक बात है

सब कुछ होता दिल के अन्दर

मानों तो ’देवत्व’ छुपा है

वरना पत्थर तो है पत्थर

 

460

इतना हठ भी ठीक नहीं है

टूट गया दिल फिर न जुड़ेगा

राख बची रह जाएगी फिर

अरमानों का धुँआ उड़ेगा

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