क़िस्त 115/क़िस्त 2
457
शायद तुम को खुशी इसी में
तुम जीती हो हारा हूँ मैं
अच्छा कोई बात नहीं है
फिर भी एक किनारा हूँ मैं
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और कोई होता समझाता
तुमको समझाना मुश्किल है
एक लकीर खिंची पत्थर पर
और तुम्हारा पत्थर दिल है
459
सौ बातों की एक बात है
सब कुछ होता दिल के अन्दर
मानों तो ’देवत्व’ छुपा है
वरना पत्थर तो है पत्थर
460
इतना हठ भी ठीक नहीं है
टूट गया दिल फिर न जुड़ेगा
राख बची रह जाएगी फिर
अरमानों का धुँआ उड़ेगा
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