285
बादल बरसे या ना बरसे
होता नहीं असर अब मुझ पर,
तेल चुक गया जिस दीपक मे
कभी जला फिर क्या वह बुझ कर ।
286
अपना बन कर छला सभी ने
फिर भी कोई नहीं गिला है
आँख मूँद कर करूँ भरोसा
अबतक कोई नहीं मिला है।
287
’कथनी’ में कुछ, ’करनी’ में कुछ
चेहरे पर चेहरे थे उनके,
हवा हवाई की बातें थी
क्या करते हम उनको सुन के ।
288
पथरीली राहों से चल कर
सागर से जब मिलने आई,
प्यास मिलन की लेकर नदिया
नाप रही अपनी गहराई ।
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