शनिवार, 7 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ : क़िस्त 054

 अनुभूतियाँ 054 ओके

213

अच्छा, कोई बात नहीं है

जाना चाहो, जा सकती हो,

लेकिन दर यह खुला रहेगा

जब चाहो तुम आ सकती हो ।

 

214

दुनिया में सबकी होती है

कुछ ना कुछ अपनी मजबूरी ,

रूठ गई क्यों चली गई तुम

बिना सुने ही बातें पूरी 

 

219

माना मेरी ही ग़लती थी

अब तो बताओ क्या है करना,

उलझे रहना उन बातों में

या कि उससे कभी उबरना ?

 

216

बात चली तो कई कहाँ तक

रातों-रात कहाँ तक फैली,

तिल का ताड़ बना देते है

दुनियावालों की है शैली  


 

कोई टिप्पणी नहीं: