345
तुमने ही खो दिया भरोसा
वरना मेरी क्या ग़लती थी,
चाँद उछल कर छू लेने की
शायद तुम को ही जल्दी थी।
346
जा ही रही हो तो जाओ फिर
आँसू हैं ये, कब रुक पाते,
मुमकिन हो तो भूले भटके
मिलते रहना आते-जाते ।
347
मन के अन्दर अगर ख़ुशी हो
मौसम हरा-भरा लगता है
वरना पतझड़ की आहट से
पत्ता डरा-डरा लगता है ।
348
हक़ से कुछ माँगा था तुमने
कितना था विश्वास तुम्हारा,
पास नहीं था कुछ देने को
शर्मिंदा था दिल बेचारा ।
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