बुधवार, 11 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ : क़िस्त87

 

345

तुमने ही खो दिया भरोसा

वरना मेरी क्या ग़लती थी,

चाँद उछल कर छू लेने की

शायद तुम को ही जल्दी थी।

 

346

जा ही रही हो तो जाओ फिर

आँसू हैं ये, कब रुक पाते,

मुमकिन हो तो भूले भटके

मिलते रहना आते-जाते ।

 

347

मन के अन्दर अगर ख़ुशी हो

मौसम हरा-भरा लगता है

वरना पतझड़ की आहट से

पत्ता डरा-डरा लगता है ।

 

348

हक़ से कुछ माँगा था तुमने

कितना था विश्वास तुम्हारा,

पास नहीं था कुछ देने को

शर्मिंदा था दिल बेचारा ।


 

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