ग़ज़ल 297/62
212--212--212--212
फेर ली तूने क्यों मुझसे अपनी नज़र
छोड़ कर अब तेरा दर मैं जाऊँ किधर ?
ये अलग बात है वह न हासिल हुआ
प्यार की राह लेकिन चला उम्र भर
उठ के दैर-ओ-हरम से इधर आ गया
जिंदगी रंग में मैकदा है इधर
सरकशी मैं कहूँ या कि दीवानगी
वह बनाने चला बादलों पर है घर
ख़ुदनुमाई से उसको थी फ़ुरसत कहाँँ
देखता ख़ुद को भी देखता किस नज़र
बोल कर था गया लौट आएगा वह
रात भी ढल गई पर न आई ख़बर
उसको ’आनन’ सियासी हवा लग गई
झूठ को सर झुकाता सही मान कर
-आनन्द.पाठक-
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