ग़ज़ल 296 [61इ]
221--1222 // 221-1222
मिलता हूँ गले लग कर, अपनी तो है बीमारी
दिल खोल के रखता हूँ, यारों से है दिलदारी
जो दाग़ लगे दिल पर नफ़रत से कहाँ मिटते
हर बार मुहब्बत ही नफ़रत पे पड़ी भारी
सत्ता के नशे में तुम रौंदोगे अगर यूँ ही
मज़लूम के हर आँसू बन जाएगी चिंगारी
कीचड़ से सने कपड़े कीचड़ से कहाँ धुलते
हर शख्स में होती जो, इतनी तो समझदारी
तुम दूध पिलाते हो साँपों को बसा घर में
वो आज नहीं तो कल कर जाएंगे गद्दारी
आसान नहीं होता ईमान बचा रखना
फिर काम नही आती जुमलॊं की अदाकारी
”आनन’ की जमा पूँजी बाक़ी है बची अबतक
इक चीज़ शराफ़त है इक चीज़ है ख़ुद्दारी
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें