शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ : क़िस्त43

 

169

सूरज डूबा, शाम ढली अब

धीरे धीरे “मै” भी छूटा ,

बाँध सका मुठ्ठी में कितना

एक भरम था मेरा टूटा ।

 

170

सोच रहा हूँ जाने कब से

सच में तुम थी या माया थी,

रूप तुम्हारा आभासी था

या छाया की प्रतिछाया थी ।

 

171

वह एक ’कल्पना’  कि ’प्रेरणा’

कौन बसी है? ज्ञात नहीं है,

जीवन भर की "अनुभूति" है

पल-दो पल की बात नहीं है ।

 

172

देख चुका हूँ दुनिया तेरी

घात कुटिल और मीठी बानी,

रूप भले ही अलग अलग हों

चाल मगर जानी पहचानी ।


 

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