169
सूरज डूबा, शाम ढली अब
धीरे धीरे “मै” भी छूटा ,
बाँध सका मुठ्ठी में कितना
एक भरम था मेरा टूटा ।
170
सोच रहा हूँ जाने कब से
सच में तुम थी या माया थी,
रूप तुम्हारा आभासी था
या छाया की प्रतिछाया थी ।
171
वह एक ’कल्पना’ कि
’प्रेरणा’
कौन बसी है? ज्ञात नहीं है,
जीवन भर की "अनुभूति" है
पल-दो पल की बात नहीं है ।
172
देख चुका हूँ दुनिया तेरी
घात कुटिल और मीठी बानी,
रूप भले ही अलग अलग हों
चाल मगर जानी पहचानी ।
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