अनुभूतियाँ : क़िस्त 105 ओके
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इधर उधर की बातें क्यों तुम
करती रहती घुमा फिरा कर,
क्यों मुझको भरमाती रहती
झूठी मूठी बात बना कर । 
418
नज़र झुका कर फिर न उठाना
मुझको काफी एक इशारा ,
दिल की बात अगर मैं  कह दूँ 
तुम को शायद हो न गवारा ।
419
छू कर आतीं मृदुल हवाएँ
जब जब तेरा कोरा आँचल,
रोम-रोम
तब खिल उठता है
मन मेरा हो जाता  पागल ।
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सच है कि वो नज़र न आता
होने का एहसास है लेकिन ,
शीतल मन्द सुगन्ध हवा-सी
पास सदा रहता है लेकिन । 
 
 
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