413
इतना मुझको डरा न पगली !
जान निकल जाएगी मेरी,
कर्मों का फल सबको मिलता
बात नई क्या इसमे तेरी ?
414
कौन इधर से गुज़रा है जो
महक रहा है सारा गुलशन
बेमौसम आ गईं बहारें
कलियाँ कलियाँ करती नर्तन ।
415
रूप-राशि से अपनी, सुमुखी !
मत बाँधों इस भोले मन को
तोड़ न पाऊँगा जीवन भर
भुजपाशों के इस बंधन को ।
416
क्या क्या गुजरी दिल पर मेरे
क्या क्या तुमको बतलाऊँ मैं
आँसू मेरे, अपने ग़म से
दिल को अपने बहलाऊँ मैं ।
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