373
जब तक है चेतना तुम्हारी
तब तक इसको थाती समझो,
जबतक साँस तभी तक तुम हो
वरना तन फिर माटी समझो
374
सूरज
जबतक चमक रहा है
जो
करना है कर जाना है,
शाम
ढलेगी तो फिर सबको
अपने
अपने घर जाना है ।
375
सबकी यूँ पहचान अलग है
लेकिन भीतर सत्व एक है,
रंग-रूप
हो अलग अलग पर
सब के अन्दर ’तत्व ’ एक है
376
रात
गई सो बात गई अब
उन
बातों को दुहराना क्यों
नई
सुबह की नई किरन में
फिर
से सबको बतलाना क्यों ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें