ग़ज़ल 289[54E]
212---1222 // 212---1222
आप को गुमाँ ये है ’आप से ज़माना है’
बात है शरीफ़ों सी , सोच जाहिलाना है
ख़ुद ही वो मुलव्विस हैं सैकड़ॊ गुनाहों में
बात का मगर उनकी तर्ज़ आरिफ़ाना है
बात अब उसूलों की है कहाँ सियासत में
सत्य बस रही कुर्सी, शेष सब बहाना है
धूल उस के चेहरे पर, मानता नहीं लेकिन
वक़्त का तकाज़ा है आइना दिखाना है
रोशनी पे पहरा है ,बस्तियाँ जला देंगी
झूठ सब दलाइल हैं सोच अहमकाना है
बोलना ज़रूरी है? फ़ैसला तुम्ही कर लो
या तो सर कटाना है या तो सर झुकाना है
जुर्म हो किसी का भी, शक हो सिर्फ़ मुझ पर ही
यह तो हद हुई साहब ! मुझ पे क्यों निशाना है?
साज़िशें हवाओं की बन्द कब हुई ’आनन’
प्यार के चिराग़ों को ख़ौफ़ से बचाना है ।
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें