रविवार, 8 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ : क़िस्त 061

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 061 ओके

241

झूठे वादे थे सब उसके

निश-दिन उसकी राह निहारे,

कब आना था उसको लेकिन

यादें आईं  साँझ-सकारे ।

 

242

मजबूरी क्या क्या न हमारी

जान रहे थे तुम भी प्रियतम !

क़दम हमारे बँधे हुए थे .

आती भी तो कैसे, हमदम !

 

243

आज अचानक याद तुम्हारी

मलय गन्ध से भीगी आई ,

सोए सपने जाग उठे सब

सपनों नें ली फिर अँगड़ाई   

 

244

शाम इधर होने को आई

तुम अपना सामान उठा लो,

अनजाने कुछ ग़लत हुआ हो

नादानी थी, समझ भुला दो ।


 

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