सोमवार, 9 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ क़िस्त 080

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 080

317

कल तक मेरा दम भरती थी

और दुआओं में था शामिल,

आज उसी की नज़रॊ में हूँ

आवारा ,नाक़िस, नाक़ाबिल

 

318

दुनिया को लगता हो शायद

झूठ सभी किस्से होते हैं,

प्यार वफ़ा तनहाई आहें

जीवन के हिस्से होते हैं ।

 

319

बिना बताए चली गई तुम ,

क्या थी ग़लती, प्रिये हमारी

इतना तो बतला कर जाती,

कब तक देखूँ राह तुम्हारी ।

 

320

जब से रूठ गई वो मुझसे

रूठ गया ज्यों चाँद गगन से,

आती नहीं बहारें अब तो

जैसे खुशबू गई चमन से


 

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