265
दर्द सुनाऊँ आह भरूँ तो
दीवारें सब सुना करेंगी
अगर बुलाऊँ शिद्दत से तो
तसवीरें सब बोल उठेंगी
266
ना देना था, ना तुम देती
लेकिन उल्का-तीर
न देती,
तोड़ दिया जब एक
भरोसा
हँस कर पाहन-पीर
न देती ।
267
रूप तुम्हारा क्या है, सुमुखी !
सच के ऊपर झूठ का परदा,
इक दिन इसको ढल जाना है
मन फिर हाथ रहेगा मलता ।
268
कुछ तो रही शिकायत तुम से
कुछ अपने ग़म का रोना था,
दुनिया को मैं क्या बतलाता
जो होना था, वह होना था ।
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