ग़ज़ल 294
1222---1222---1222--1222
जमाल-ओ-हुस्न जब उनका बहारों पर उतर आया
चमन गाने लगा सरगम दिल अपना भी निखर आया
हज़ारों रंग से हमने सँवारी ज़िंदगी अपनी
मगर हर रंग में इक रंग उनका भी उभर आया
ये दीवानों की बस्ती है, फ़ना है आख़िरी मंज़िल
तमाशाघर नहीं है यह, समझ कर क्या इधर आया ?
मुहब्बत में कमी होगी, वो नादाँ भी रहा होगा
तुम्हारे दर तलक जा कर भी वापस लौट कर आया
निगाह-ए-शौक़ से क्या क्या मनाज़िर है नहीं गुज़रे
न उनकी रहगुज़र आई, न नक़्श-ए-पा नज़र आया
ढलेगी शाम अब साथी परिंदे घर को लौटेंगे
चलो अब ख़त्म होने को हमारा भी सफ़र आया
समझना ही नहीं चाहा इस ’आनन’ को कभी तुमने
तुम्हें सिक्के का बस क्यों एक ही पहलू नज़र आया
-आनन्द.पाठक-
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