177
नहीं इनायत रही तुम्हारी
फूल सूखने लगे चमन के,
पहले वाली बात नहीं अब
फूल महकते थे जब मन के ।
178
सावन की रिमझिम बूँदे अब
तन में रह रह आग लगाती,
विगत बरस हम तुम झूले थे,
याद मुझे इस बार झुलाती ।
179
दिल पर तुम क्यों ले लेती हो
दुनिया वालों की बातों को ,
उन को तो बस काम यही है
तुम क्यों जगती हो रातों को ।
180
झूठ इसे मैं कैसे मानूँ
आँखों देखी सब बातें हैं ।
तेरे आँचल में खुशियाँ है
मुझको ग़म की सौगाते हैं ।
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