357
पता तुम्हारा सब जाने हैं
योगी-भोगी या सन्यासी,
लेकिन वह भी भटक रहे हैं
मन्दिर मन्दिर मथुरा-काशी |
358
तुम
सावन की बदली जैसी
जाने
किधर किधर से उमड़ी,
एक
मेरा मन छोड़ के प्यासा
जाने
किधर किधर को बरसी |
359
आसमान से उतर चाँदनी
करने आई सैर चमन की,
जाते जाते पूछ रही थी
कहीं ख़बर क्या कुछ ’आनन’ की|
360
कली
कली में फूल फूल में
गन्ध
तुम्हारी समा गई है,
पुष्प-वाटिका
की खुशबू ही
पता
तुम्हारा बता गई है ।
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