429
बाजी बिछी हुई है, प्यारे !
हम बिसात के सब मोहरे हैं,
हाथी -घोड़ा ,राजा-रानी
एक बुलावे तक ठहरे हैं ।
430
छाप-तिलक या माला भगवा
ये साधन है, साध्य नहीं हैं,
यह तो एक छलावा भर है
मन में जब ’आराध्य’ नहीं हैं।
431
कभी कभी बीती यादों से
आँखें भर आती बेमौसम
जाने कहाँ गए वो दिन अब
पहलू में होता था हमदम ।
432
मेघदूत ! बस एक बार फिर
जा कर कह दे पाषाणी से
"व्यर्थ विवेचन करना इस पर
दिल तोड़ा किसने वाणी से?"
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