ग़ज़ल 298 [63इ]: आग पहले तुम्ही लगाते हो
ग़ज़ल 298/63
2122--1212--22
आग पहले तुम्हीं लगाते हो
और तुम ही जले-बताते हो
इन अँधेरों को कोसने वालों
इक दिया क्यूँ नहीं जलाते हो
झूठ की नींव पर खड़े होकर
रोज़ तोहमत नया लगाते हो
काँच का घर ही जब नहीं मेरा
खौफ़ पत्थर का क्या दिखाते हो
बाँध जब टूटने का ख़तरा है
सब्र क्यों और आजमाते हो
बात बननी ही जब नहीं कोई
बात फिर क्यों वही उठाते हो
आख़िरी सफ़ में है खड़ा ’आनन’
याद कर के भी भूल जाते हो ?
-आनन्द.पाठक-
सफ़= पंक्ति कतार
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